ज़िंदगी के अजीब हैं पेच-ओ-खम

ज़िंदगी के अजीब हैं पेच-ओ-खम,

एक तरफ जरूरतें, एक तरफ ख़ाब,

और बीच में दोनों के फस गए हैं हम!


ना जाएँ काम पे तो घर नहीं चलता,

ना बिताए अगर सुखन-ए-शाम तो

या दिल रो रो के सिसकियां है भरता,

कोई बताए जाएँ तो जाएँ किधर हम,

ज़िंदगी के अजीब हैं पेच-ओ-खम!


क्या ही बताऊं अब मैं ये किसी को

कितने काम मैने शुरू करके छोड़े हैं,

कितने जाम खुद मैने हाथ से तोड़े हैं,

कब से कर रहा हूँ अपने पे ये सितम,

ज़िंदगी के अजीब हैं पेच-ओ-खम!


कभी दिल करता है के अब लोट जाएँ,

कभी दिल करता है के कोई दाव लगाएँ,

कभी दिल करता है घर छोड़ निकल जाएँ,

गौतम नानक या बुल्ले शाह बन जाएँ हम,

ज़िंदगी के अजीब हैं पेच-ओ-खम!


गिला है आज वक्त से भी ये हमको,

नहीं वक्त देना था जो इतने सब के लिए,

क्यों इस गरीब को इतने अरमान दे दिए,

देता बस एक ना उससे ज्यादा ना कम,

ज़िंदगी के अजीब हैं पेच-ओ-खम!

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