मैं दुनिया से चाह के भी कभी कोई फरेब नहीं कर सकता

मैं दुनिया से चाह के भी कभी कोई फरेब नहीं कर सकता,

पर अच्छा बनने के लिए अपने को तबाह भी नहीं कर सकता,


कर लेता हूँ बाल काले जो वक़्त ने कर दिए हैं कुछ सुफेद,

सबकी नज़र देखती है जो उसे नज़र अंदाज़ नहीं कर सकता,


मैं बेवजह की बहस, नुक्ताचीनी और दलीलों में नहीं पड़ता,

पर हाँ जहाँ हल हो सकता है वहाँ कोशिश जरूर हूँ करता,


ये बात भी अब सीख ली है हर जगह बोलना ठीक नहीं है,

लाख कोई चाहे उक्साए बहकाए मैं अब हामी नहीं भरता, 


मैंने देख लिया अब तो कई बार दुनिया का ये सब खेल,

खुदगर्ज़ हो जहाँ सब, खुदगर्ज़ होने से अब नहीं कतरता,


शायद इसे ही ज़िन्दगी की समझ और दुनियादारी कहते हैं,

हैं और भी राज़ मेरे सब सब किसी को जाहिर नहीं कर सकता! 

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