इसी का नाम ही तो जिंदगी है

आदमी मैं बुरा कभी भी नहीं था,
बस मैंने उछल के छूना चाहा आसमान,
और मैं हर बार रहा नाकामयाब,
और मुझे ले डूबा ये जिल्लत-ऐ-एहसास,
के यह दुनिया अपने लिए नहीं है,
पर हाय मैंने कभी ये क्यों ना सोचा,
के कोशिश करना हार जाना जीत जाना,
और गिर के फिर संभल के खड़े हो जाना,
इसी का नाम ही तो जिंदगी है!

ਤੂ ਅੱਜ ਵੀ ਤ੍ਰੀਮਤ ਓਹ ਹੀ ਹੈਂ

For the hard earned things sometimes which we stop valuing after having for sometime. ਤ੍ਰੀਮਤ means woman, wife but i have intended to use it here in larger terms to encompass everything like friends, job etc...
 
ਤੂ ਜੋ ਹੈਂ ਹੁਣ ਮੇਰੇ ਕੋਲ,
ਮੈਨੂ ਤੇਰੀ ਕੀਮਤ ਨਹੀਂ ਹੈ,
ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਜਿਸ ਲਈ ਮੈਂ,
ਕੀਤੀਆਂ ਸਨ ਏਨੀਆਂ ਅਰਦਾਸਾਂ,
ਤੂ ਅੱਜ ਵੀ ਤ੍ਰੀਮਤ ਓਹ ਹੀ ਹੈਂ,
ਇਸ ਵਿੱਚ ਤੇਰਾ ਕੁੱਝ ਵੀ ਦੋਸ਼ ਨਹੀਂ,
ਇਸ ਵਿੱਚ ਸਭ ਕਸੂਰ ਤਾਂ ਹੈ ਮੇਰਾ ਹੀ,
ਜੋ ਮੈਂ ਇਸ ਪੜਾਅ ਤੇ ਆ ਭੁੱਲ ਗਿਆ ਹਾਂ,
ਕੇ ਕਿੰਨੇ ਸਨ ਜੱਗ ਤੇ ਦੀਵਾਨੇ ਤੇਰੇ,
ਪਰ ਸਭ ਨੂੰ ਠੁਕਰਾ ਤੂੰ ਬਾਂਹ ਮੇਰੀ ਫੜੀ ਹੈ!

सुमन

दो सखियाँ सुमन और स्नेहलता नदी के किनारे कपडे धो रही हैं सामने एक पतवार में अजनबी दिखाई पड़ता और दोनों में बात शुरू हो जाती है

स्नेहलता
एक बात कहूं रे री सखी,
एक बात मन में आवे है,
कई दिन से मैं कहना चाहूँ,
कई दिन से मुझे सतावे है!

सुमन
हाँ हाँ जरूर कहो री सखी,
इतने दिन काहे छुपाए रक्खी,
हम दोनों के सिवा कौन यहाँ,
भला किस से तू सकुचावे है?

स्नेहलता
तू देख रही क्या?
सामने वो पतवार वाला,
कुछी दिन इसे देखूं यहाँ,
अपना नहीं लगता
गाँव का ये रहने वाला!

सुमन
तू काहे को घबराए है,
नहीं तुझको वो कुछ कहने वाला!

स्नेहलता
चिंता काहे न करूं री,
मैं तो डर के मारे जाऊं मरी री,
सब जानते हैं दूर दूर तक,
इस सुखी नदिया के जल में,
कोई मीन ना कभी आवे है,
तो फिर भला क्यों ये रोज यहाँ,
जाल अपना आ फैलावे है?

सुमन
तू तो बिलकुल पगली है री,
बिन बात के ही डर जावे है!

स्नेहलता
नहीं नहीं आज में फिर
मुखिया जी से जा कह देती,
अब इसको और में,
नदी में ना आने जाने देती!

सुमन
ना ना री सखी ऐसा जुलम ना करो,
मुझे मोरे शाम से दूर ना करो!

स्नेहलता
ओ री सुमन ये तू क्या कह रही,
तुझे ज्ञात है के है वो कौन अजनबी?

सुमन
हाँ हाँ री, हाँ हाँ री,
मैं जानू हूँ है वो कौन अजनबी,
तुझे याद है कुछ दिन पिहले,
कहा था तुझसे मैंने,
एक किशन कन्हिया की,
मेरे मन में आ बसी है छवि,
ये किशन कन्हिया ही है वो अजनबी!

स्नेहलता
अगर तु इसे जानत है,
सब कुछ उसे अपना मानत है,
तू काहे उससे बात ना करती,
भला तूं रहती किससे डरती?

सुमन
तू सुन रे तू आज
मुझ अभागन की सभ गाथा,
कैसे हुए वो मेरे किशन कन्हिया,
कैसे हुई मैं उनकी राधा!

स्नेहलता
हाँ हाँ जल्दी बता सभ,
मैं तो थी
कितने गहरे अँधेरे में अब तक!

सुमन
एक रोज गयी थी
जब मैं शहर माँ के साथ,
टाँगे में बैठे थे ये हमारे पास,
बस उस सफ़र में हुई थी,
पहली नैनो की नैनो से बात,
पर हाए री मैं अभागन,
माटी मैं धरती की,
कैसे छु सकती उडके गगन!

सुमन रोने लगती है,स्नेहलता उसे चुप्प कराते हुए कहती है

स्नेहलता
हाए हाए ऐसी क्या बात हुई,
दिल पे है तेरे गहरा आघात कोई,
अभी से लगी दर्द से करहाने,
अभी तो शुरू है रे री बात हुई!

सुमन फिर धीरे धीरे अपने आप को संभालते हुए

सुमन
हाँ तो मैं कह रही थी?
टाँगे में हुई पिहली नैनो से बात,
वो मुझको मैं उनको बस देखे जात,
और मैं अचानक से ही,
गगन में परी बन उड़ने लगी,
अम्बर से धरती तक
एक तन गया रेशम सा कोमल झूला,
और मैं कभी धरती कभी अंबर,
कभी अंबर कभी धरती,
दोनों जहां में उतरने चडनी लगी,
और मंद मंद कमल पुष्पों की महक,
सी जैसे सभ और भिखरने लगी,
और फिर अगला जो पल था,
माँ का गूंजा कानो में कोताहल था,
चिल्ला चिल्ला के थी कह रही,
पगली अब उतरेगी भी के नहीं,
और फिर जब मैं टाँगे से उतर गयी,
सब कुछ था जैसे वही का वही,
वो सब सपना रहा दो पल का,
लगा के जैसे कोई कर गया छल था,
फिर रात को आकर जब खाट पर लेटी,
लगा के जैसे कांटो के बाट पर लेटी,
और सावन के सभ बादल,
जैसे थे मेरी आँखों में आए,
आंसू मेरी आँखों से रुकने ना पाए,
रोम रोम मेरा कह रहा था ये चिल्लाए,
हाए मुझे मोरे किशन कन्हिया से कोई दियो मिलाए,
बस जिब्ह्वा एक अकेली मौन थी,
एक अकेली थी इसको ही थी लाज रहे सताए,
एक एक पल गुजर रहा था ऐसे,
कोई सदी हर पल बीत रही हो जैसे,
उन पल की पीड़ा और मैं तुझे समझाऊं कैसे,
बस मान ले तू इतना, सब जंगल के
सब चन्दन से लिपटे नाग थे मुझे डसने आए,
ऊपर से अग्नी बरस रही थी,
तन मन मेरे रही थी जो जलाए,
और ऐसी सूरत में भी यम लेने ना आए,
जीना मरने से भी मुश्किल हो जाए,
ऐसी विरहा में ऐसी वो रात बिताई,
ऐसी काली रात ना पहले थी जीवन में आई,
और फिर जब दर्द भरी रैन भई,
मैं दिन चड़ते ही टाँगे वाले के पास गई,
कौन और कहाँ ये सब पता किया,
और उससे मिलने जाने का निर्णय किया!

स्नेहलता
हाँ हाँ ये तो सही किया,
तेरे दर्द का मलहम तो
कर सकते थे तेरे किशन कन्हिया,
इससे पहले तेरा रोग कोई और जाने,
तुने सब रोग मिटाने का प्रय्तन किया,
तो बता फिर तुने बिन पाए ही,
कैसे फिर उसे खो दिया?

सुमन
हाँ री सखी ये तो बात तुने ठीक कही,
मैंने उनको खो भी दिया,
और मैंने उनको पाया भी नहीं,
तो मैं हाँ कह रही थी,
मैं टाँगे में बैठ उस के दर जा रही थी,
खुद से ही जैसे बतिया रही थी,
क्या उसके मन में भी मेरी लिए प्रीत लगी होगी,
क्या उसके मन में भी मेरे प्रेम की जोत जगी होगी,
हाय अगर ऐसा ना हुआ तो मैं जी सकुंगी क्या?
सोच रही थी कल जीता था मैंने जग सारा,
कल मैंने पाया था धरती और नभ का हर तारा,
अगर ना उसने मुझको सविकारा,
खोया जो अपने को मैंने
फिर अपने आप को मैं कहीं ढून्ढ सकूंगी क्या?

सुमन
कर जेठ दुपहिरी सभ सफ़र,
पौंहची जब पास मैं उसके घर,
तो मैंने फिर ये पाया,
के ये तो है आदमी शहर का जाना माना,
नहीं हो सकता एक गाँव की ग्वारान के
भाग्य में इस घर के अन्न का एक भी दाना,
बस यही बात मेरे मन में चुभ गयी,
के लोग कहेंगे धन दोलत के लालच में आ के,
ग्वारन अपने प्रेम के जाल में फसा के,
महलो की रानी बन गयी,
और फिर खड़ी दूर से ही देखती रही,
के एक झलक मुझ मीरा को
मेरे किशन की मिल जाए कहीं,
और फिर जब मैं उसे दूर से ही देख रही थी,
उसने भी मुझे खड़ी दूर देख लिया,
पास मेरे आने के लिए कदम आगे दिया,
और छुप के कहीं दूर निकाल जाऊं,
अपने मोहन को ना अपनी सूरत दिखाऊं,
लाख मैंने ये यतन किया!

स्नेहलता
तो तू फिर क्या वापिस आ गयी?
अपने किशन कन्हिया से मिली नहीं?

सुमन
ना मिलती तो अच्छा ही होता,
मैं मिटटी तो व्यर्थ हूँ ही,
इस मिटटी के संग सोना तो व्यर्थ ना होता,
भाग रही थी जब दूर मैं उससे,
आ मिले मुझसे बीच वो रस्ते,
और कहने लगे मुझसे अहिस्ते अहिस्ते,
क्या हुआ, कहाँ जा रही,
सब छीन के मुझसे मेरा अब किधर भाग रही?
तो मैंने कहा बस उससे इतना ही,
अपना प्रिया इस जनम तो मेल मुमकिन नहीं,
और मुझे जाने दो है मुझे देर हो रही,
फिर बस मैं भागी चली आई,
ये सोच के के भूला दूँगी सभ,
कभी मैं माँ के साथ गयी ही थी नहीं,
किसे से मुझे कभी प्रीत लड़ी ही थी नहीं!

स्नेहलता
पर तुने अब तक बताया,
ये बन के माझी है तेरा किशन क्यों आया!

सुमन
मेरे वहां से जाने के बाद,
दिया इसने भी सब घर बार त्याग,
और रहने लगा गाँव में बनके मछुआरा,
कहता है ले तेरे लिए मैंने सभ कुछ हारा,
अब तो बता दे तू मुझको
क्या मैं अब भी नहीं हूँ तुझको प्यारा?
मैं भला इसको क्या बतलाऊं,
कैसे मैं कांसे की बनी,
सोने के आभूषण में जा जड़ जाऊं!

स्नेहलता
और ये है के दिल का सच्चा,
इसके प्रेम का है हर धागा पक्का!

सुमन
हाँ हाँ बस इसी जिद्द पे अड़ा हुआ है,
कहता है मैं किशन और तू रुकमनी,
मैं तेरे लिए और तू मेरे लिए है बनी,
अपना जन्मो से जन्मो के लिए,
एक पिछले युग विवाह हुआ,
और मैं इसे कहती रहती,
तुम किशन हो, मैं राधा हूँ,
अपना कभी किसी युग में
नहीं कहीं मिलन हुआ,
पर ना मैं मानू हूँ, ना ये माने है,
क्या होगा प्रीत हमारी बस वो रब जाने है!