भीष्म

था जिसे वर के मृत्यु कर
नहीं सकती उसे पराजित,
लेटा है बाणों की शय्या पे,
निसहाय निर्बल रक्त रंजित,
देखा जो भीष्म पितामह को,
तो मन हो उठा आज विचलित,

पिता के स्वार्थ के खातिर,
कर दिया घर बार न्योछावर,
मुख मोड़ लिया ग्रह्स्थ से,
चल पड़े ब्रह्मचर्य पथ पर,

हो निस्वार्थ आजीवन भर,
कुरु कुल की सेवा की,
दे दिया तन मन धन,
माँगा कभी कुछ भी नहीं,

और फिर ईर्ष्यालु क्रोधी
दुर्योधन के हठ के लिए,
चल पड़े कुरूक्षेत्र युद्ध में,
खींच अपना रथ लिए,
विवश हो ममता के हाथ
अंत प्राण अपने दे दिए,

पर क्या मिला भीष्म को,
अपना सब कुछ लुटा कर,
क्या उससे कहा होगा किसी ने,
तुम कर लो आराम क्षण भर,

क्या यही जीवन है के,
चलो सब त्याग कर्त्तव्य पथ पर,
या फिर जीवन है अपने लिए
पाना पुरषार्थ और हठ कर,

भीष्म की प्रतिज्ञा सा,
भीष्म है ये प्रशन भी,
जीवन कितना अपने लिए
जीवन कितना जग के लिए,
जीना है सही!