फिर अपनी तो औकात ही क्या?

स्न्ख्सर वो जिन्होंने लुटा दो तमाम जिंदगी इस काम की खातिर,
शानो शोहरत तो वो ढूँढ़ते फिरते हैं अभी तक,
फिर अपनी तो औकात ही क्या?
की किताबो की दुकानों पर जा कर देखो कभी हाल मियाँ,
के मिरो ग़ालिब तक के शेयर धुल चाटते फिरते है,
फिर अपनी तो औकात ही क्या?