एक खाब था जो कल मैंने देखा था,
उस खाब में मैं था, वो थी, एक घर था,
और घर के आँगन में एक बच्चा था,
जो उछलते खेलते कूदते हुए,
कभी मुझसे आ लिपटता था,
कभी उससे जा लिपटता था,
और मैं कभी उसे देखता था,
कभी उस बच्चे को देखता था,
और दोनों को देख देख कर
मेरा जी न भरता था,
और हर आती जाती सांस में मैं,
कई लाख बरस जीने की तमन्ना करता था,
हर सांस लग रही थी मुझे
खुदा की जैसे इनायत कोई,
मैं फूला न समा रहा था,
के मेरी साधना सफल हो गई,
पर फिर अचानक सुबह हो गई,
खाब न रहा मेरी नींद खुल गई,
बसी बसाई जैसे दुनिया उजड़ गई,
बस्ती कोई जिसे आग निगल गई,
कश्ती कोई जिसे सुनामी बहा ले गई,
बिजली कोई जैसे बादलों से निकलकर,
मेरे उस घर को खंडहर कर गई,
और मैं बस खड़ा देखता रह गया,
हकीकत सब खुशियाँ चुरा ले गई,
और दिल के सहरा से उठी,
दर्द भरी चाहे आंधियाँ कई,
पर मेरे होंठ जैसे सिल गए थे,
उनको चाहकर भी पुकार सके नहीं,
और मैं लाचार पड़ा रहा आपना बिस्तर में,
जैसे मेरे जिस्म में बाकी जान ही ना रही,
और फिर सब दर्द बन के आंसूं,
आँखों के रस्ते बह गया,
हकीकत के आगे हसीं सपने का मोल,
कुछ बूँद खारा पानी रह गया,
बस इसीलिए थोडा उदास हूँ आज,
मैं पुहँच गया था वहां तक,
आरज़ू बसी है जिसकी मेरे रोम रोम तक,
पर हकीकत ने ला कर पटक है दिया,
मुझे फिर से वही,
जहाँ मैं जी रहा हूँ तनहा बेमानी जिंदगी,
जिसकी मुझे कोई चाहत ही नहीं!
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