अगर रोटियों का ही बस मोह होता,
और सर पे मेरे छत रहे,
बस इतना सा ही मैं सोचता होता,
तो मैं इतनी दूर क्यों आता,
इतना सा गुजर बसर तो,
वहां भी कुछ न कुछ करके हो ही जाता!
रातों की नींद इसी लिए तो न गवाई थी,
शामें बचपन की इस लिए तो ना लगाई थी,
के कारखाने के अव्वल मजदूर होंगे हम,
या जिसको सलाम फेंके चार लोग,
ऐसे कभी हजूर होंगे हम,
ये ख्वाब तो आज तक आंख में न है आता!
हम तो निकले थे घर से,
भटके थे शहर शहर दर ब दर पे,
सब मोह, सब प्यार त्याग के,
इस उम्मीद पे, इस आस पे,
के कोई कहीं मिल जाएगा,
जो आग दिल में है एक,
उसकी रोशनी में हमको,
खोज और करतब की दुनिया में छोड़ आएगा,
पर वो दर ओ दीवार तो कहीं नजर नहीं आता!
यहां तो बस दौड़ धूप है,
काम है, दाम है, आराम है,
पाँच दिन जलना है भट्टी के आगे,
और फिर दो दिन अपने तमाम हैं,
जिसमे समझ नहीं लगता क्या करे,
बस उलझन, मायूसी, बेचैनी,
खौफ, शिकस्त, ना उम्मीद,
घेरे रहती है हर वक्त,
शायद यही खाबों से बेवफाई
का सिला और इनाम है,
या फिर जिंदगी ऐसी ही होती है,
बेमतलब, बेमकसद, खानाबदोशी,
हमको ही अभी समझ नहीं,
सब सही कहते है हमको ही जीना नहीं आता!
बड़ी कोशिश करता हूं समझौता करने की,
हर अपनी सोच अपने ख्वाब को खत्म करने की,
जस्बात पे काबू रखने की,
दिल को पत्थर करने की,
बस और बस सिर्फ अकल की राह पे चलने की,
पर क्या करूं कभी न कभी,
ये सब ख्याल आ ही जाता,
अगर रोटियों का ही बस मोह होता,
और सर पे मेरे छत रहे,
बस इतना सा ही मैं सोचता होता,
तो मैं इतनी दूर क्यों आता,
इतना सा गुजर बसर तो,
वहां भी कुछ न कुछ करके हो ही जाता!