मिटटी के आदमी हैं,
मिटटी से लगते हैं,
कसूर हमारा ही,
सोने के शहर आ गए,
जहाँ मिटटी को
अच्छा न समझते हैं,
जहाँ मिटटी से,
दूर रहना ही सब पसंद करते हैं!
ये आलीशान घरों की,
लम्भी लम्भी कतारे,
ये रहिसों अमीरों की,
महंगी महंगी कारें,
इन सब के बीच,
फटे हाल चलते,
टूटे झोम्प्डों में पलते,
हम अच्छे तो न लगते हैं,
पर हम भी क्या कर सकते हैं!
हमारी बस्तिओं ने कर दिया है,
शहर का नक्शा खराब,
जिधर है हम रहते,
उधर से गुजर नहीं सकते नवाब,
वो हमसे बुहत नफरत करते हैं,
वो हमको अच्छा न समझते हैं,
और उनकी मेहरबानी से
हमारे घर चलते हैं,चूल्हे जलते हैं,
हाँ वो सच्च कहते हैं!
पर कोई मिले जो,
तो हम उसे बताएं,
कोई सुने जो,
तो हम उसे समझाएं,
हम भी खुश नहीं,
अपनी घर गाँव छोड़ के,
हम तो भूख के दुश्मन से,
छिपते यहाँ फिरते हैं!
मिटटी से लगते हैं,
कसूर हमारा ही,
सोने के शहर आ गए,
जहाँ मिटटी को
अच्छा न समझते हैं,
जहाँ मिटटी से,
दूर रहना ही सब पसंद करते हैं!
ये आलीशान घरों की,
लम्भी लम्भी कतारे,
ये रहिसों अमीरों की,
महंगी महंगी कारें,
इन सब के बीच,
फटे हाल चलते,
टूटे झोम्प्डों में पलते,
हम अच्छे तो न लगते हैं,
पर हम भी क्या कर सकते हैं!
हमारी बस्तिओं ने कर दिया है,
शहर का नक्शा खराब,
जिधर है हम रहते,
उधर से गुजर नहीं सकते नवाब,
वो हमसे बुहत नफरत करते हैं,
वो हमको अच्छा न समझते हैं,
और उनकी मेहरबानी से
हमारे घर चलते हैं,चूल्हे जलते हैं,
हाँ वो सच्च कहते हैं!
पर कोई मिले जो,
तो हम उसे बताएं,
कोई सुने जो,
तो हम उसे समझाएं,
हम भी खुश नहीं,
अपनी घर गाँव छोड़ के,
हम तो भूख के दुश्मन से,
छिपते यहाँ फिरते हैं!
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