मैं ठीक हूँ,
जैसे भी हूँ,
जानता हूँ
शिलाओं
को मौसम
नहीं छूता,
मैं आपका
दर्शन, अपना
नहीं सकता!
खुरदुरी दीवारों
को वो रेगमाल
से स्पॉट करके
पुताई करते रहता,
सुबह शाम फूँकता
रहता था बीड़ी,
बीच में कभी कभी
गुनगुना लेता,
मैं खड़ा वहाँ,
धुएँ में खांसते हुए
देखता रहता,
शायद अपने
इलाज के लिए!
ये वक़्त ने इस बरस
कैसी सजा दी है,
शुरू हुआ तो,
सर से छत छीन ली,
खत्म होने को है,
पाऊँ के नीचे से अब
ज़मीन खींच ली है,
काश वक़्त का
कोई पता होता,
मैं जाता और
इसको धर लेता,
मार देता इसको,
या फिर अपने
आप को लाचार पा,
इस बे-हिस के घर
के सामने, आत्मदाह
कर लेता!
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छत छीन ली,
ज़मीन खींच ली,
वक़्त ने इस साल -
मैं बस देखता रहा,
करता भी क्या?
पैरहन बदलते रहो, तहज़ीब मत बदलना,
ज़ुबान कोई भी बोलो, तमीज़ मत बदलना,
रुक जाना तो मौत है, बिलकुल नहीं कहता,
विरासत में जो मिला है बस साथ लेके चलना,
घर से निकल के, जाओ दुनिया देख आओ,
घर छोड़ के परदेस जाने की ज़िद्द मत करना,
सब से मिलो और करो दोस्ती ये अच्छी बात है,
बस किसी के लिए हमारी चाह कम मत करना,
लो मैंने अपने सपने तुम्हारे सपनो पे वार दिए,
तुम कुछ नहीं बस कभी ये तन्क़ीद मत करना!