शायरान

दर्दन, 

दुखन,

चाहतन,

शायरान,

दौलतन, 


अकेलापन,

खालीपन,

सूनापन,

अधूरापन,

शायरान,

सहूलतम,


लाचारी,

दुश्वारी,

बेकरारी,

शायरान,

निखारतन,


जुनूं,

फ़ुसूँ,

फ़ुज़ूँ,

शायरान,

उच्चतम!

एक छोटा सा गुलशन

दो लड़कियों की है 

मेरे कन्धों पे ज़िम्मेदारी,


एक छोटी सी चिड़िया,

एक फूलों की डाली,

एक छोटा सा गुलशन हमारा,

जिसका मैं हूँ माली,


चिड़िया तो चीं-चीं कर के

जब चाहे बुला लेती

सब काम रुकवा के भी

अपने पास मुझे बिठा लेती

जिसको मालूम है बस 

अभी तो खेल खिलोने

ना मानो उसकी बात तो 

करती है ज़िद्द या लगती रोने,


पर डाली मुझ से 

कुछ भी नहीं कहती,

चुपके चुपके मुझे 

बस देखती ही रहती,

उठूँ देर से या आऊं 

देर से, मेरी राह में 

पलके बिछाए बैठी रहती,


इन दोनों के लिए 

मैं दिन रात हूँ लगाता,

सपने पीछे छूट भी जाएँ 

फिर भी हूँ मुस्काता,

इन दोनों के लिए सब 

खुशियाँ हूँ ले आना चाहता, 

इन दोनों को ज़िन्दगी के 

सब दुखों से बचाना हूँ चाहता,  


चाहे मैं जानता हूँ,

जैसे दिन मैं बिताता हूँ,

अक्सर अब कभी कभी 

मैं तो ऊब सा जाता हूँ,

फिर भी फिरता हूँ 

इन दोनों के लिए 

बन के दर दर का सवाली,


एक छोटी सी चिड़िया,

एक फूलों की डाली,

एक छोटा सा गुलशन हमारा,

जिसका मैं हूँ माली!

ज़िंदगी के अजीब हैं पेच-ओ-खम

ज़िंदगी के अजीब हैं पेच-ओ-खम,

एक तरफ जरूरतें, एक तरफ ख़ाब,

और बीच में दोनों के फस गए हैं हम!


ना जाएँ काम पे तो घर नहीं चलता,

ना बिताए अगर सुखन-ए-शाम तो

या दिल रो रो के सिसकियां है भरता,

कोई बताए जाएँ तो जाएँ किधर हम,

ज़िंदगी के अजीब हैं पेच-ओ-खम!


क्या ही बताऊं अब मैं ये किसी को

कितने काम मैने शुरू करके छोड़े हैं,

कितने जाम खुद मैने हाथ से तोड़े हैं,

कब से कर रहा हूँ अपने पे ये सितम,

ज़िंदगी के अजीब हैं पेच-ओ-खम!


कभी दिल करता है के अब लोट जाएँ,

कभी दिल करता है के कोई दाव लगाएँ,

कभी दिल करता है घर छोड़ निकल जाएँ,

गौतम नानक या बुल्ले शाह बन जाएँ हम,

ज़िंदगी के अजीब हैं पेच-ओ-खम!


गिला है आज वक्त से भी ये हमको,

नहीं वक्त देना था जो इतने सब के लिए,

क्यों इस गरीब को इतने अरमान दे दिए,

देता बस एक ना उससे ज्यादा ना कम,

ज़िंदगी के अजीब हैं पेच-ओ-खम!

Homi तुम कहां हो?

 Homi तुम कहां हो?

दुनिया कहती है 

तुम चले गए,

मैं कहता हूं 

जहां भी है परमाणु

तुम वहां हो,


सूरज चढ़ा उतरा करते हैं,

चांद सितारे कभी जगह

खाली नहीं करते हैं,

तुम अपना करके काम

चले गए वहां हो,

 

तुम कलपक्कम में हो,

तुम नरौरा में हो,

तुम रावतभाटा में हो,

तुम तारापुर में हो,


तुम प्रकाश बन के,

लगता है हो हमारे बीच

इर्द गिर्द यहीं कहीं,

देख रहे हो सब जा 

रहा है ठीक के नहीं,

कभी भी अपनी

रूह को जिस्म में

डाल के, हो सकते

फिर से रूबरू हो,


Homi तुम कहां हो?

सौ सौ और कलाम चाहिए

 करते नहीं तुमको दिन में एक भी,

होना कई बार सलाम चाहिए,

इस नए भारत को एक नहीं,

सौ सौ और कलाम चाहिए,


देश के लिए जो जिए,

देश के लिए ही जो सब करे,

अपना निज्ज सब रख के परे,

अपने कर्तव्य का निर्वहन करे,

हमको ऐसे इंसान चाहिए,

इस नए भारत को एक नहीं,

सौ सौ और कलाम चाहिए,


शकित ही सौंदर्य है,

जिसकी भुजाओं में बल

शमा भी उसी वीर को 

ही शोभनीय है,

कह गए राष्ट्र कवी दिनकर,

जो दे लड़ने के लिए वीरों को 

नए युग के लिए अस्त्र शस्त्र,

ब्रह्मा जी से हमको

ऐसे और वरदान चाहिए,

इस नए भारत को एक नहीं,

सौ सौ और कलाम चाहिए,  


हर युग में ही,

ज़मीन को तो है ही,

अस्मिता को भी खतरा है,

पश्चिम उत्तर दोनों ही 

दुनिया पर हक्क जमाना 

चाहते अपना अपना है,

और जीने के लिए ज़मीन 

और सम्मान एक सामान चाहिए,

इस नए भारत को एक नहीं,

सौ सौ और कलाम चाहिए!

अच्छा बुरा जो भी हो सब कुछ बताना पड़ता है

अच्छा बुरा जो भी हो सब कुछ बताना पड़ता है,

सलीका कुछ सीखना कुछ कुछ बनाना पड़ता है,


निकल पड़ते हैं अपने भी कभी कभी बर्बाद राहों पे,

आँखें दिखा के उनको भी वापिस लाना पड़ता है,


ये कैसी दोस्ती तुम कहो ठीक, वो हो खत्म होने पे,

सख्ती से कभी कभी यारों को भी समझाना पड़ता है,


बिगड़ते ही जा रहो जो दिन-बा-दिन हालात और,

बड़ों के सामने फिर आवाज़ को उठाना पड़ता है,


बोलते तो हैं सभी पर कब, कहाँ, कितना और कैसे

आने में हुनर और फनकारी एक ज़माना लगता है! 

मैं दुनिया से चाह के भी कभी कोई फरेब नहीं कर सकता

मैं दुनिया से चाह के भी कभी कोई फरेब नहीं कर सकता,

पर अच्छा बनने के लिए अपने को तबाह भी नहीं कर सकता,


कर लेता हूँ बाल काले जो वक़्त ने कर दिए हैं कुछ सुफेद,

सबकी नज़र देखती है जो उसे नज़र अंदाज़ नहीं कर सकता,


मैं बेवजह की बहस, नुक्ताचीनी और दलीलों में नहीं पड़ता,

पर हाँ जहाँ हल हो सकता है वहाँ कोशिश जरूर हूँ करता,


ये बात भी अब सीख ली है हर जगह बोलना ठीक नहीं है,

लाख कोई चाहे उक्साए बहकाए मैं अब हामी नहीं भरता, 


मैंने देख लिया अब तो कई बार दुनिया का ये सब खेल,

खुदगर्ज़ हो जहाँ सब, खुदगर्ज़ होने से अब नहीं कतरता,


शायद इसे ही ज़िन्दगी की समझ और दुनियादारी कहते हैं,

हैं और भी राज़ मेरे सब सब किसी को जाहिर नहीं कर सकता!