वो जो कहते थे, मोहब्बत में हिसाब क्या करना,
कहने लगे इक दिन, हिसाब करो वरना,
कहते हैं ना रखो ज़ुस्तज़ु और ना पालो कोई आरज़ू,
अगर यही जीना है तो फिर क्या है मरना,
सोचते बुहत हैं लेकिन इस गिरह का सिरा हाथ आता नहीं ,
ये क्या है और ये क्यों हैं, दिन का बार बार उतरना चढ़ना,
जिस राह पे,उसपे मंजिल नहीं, जिस पे मंजिल उसकी राह नहीं,
इसी कशमश में हमें अभी, जाने और कितना है भटकना,
जो मिल गया उसकी चाह नहीं, जिसकी चाह वो मिलता नहीं,
हमसे अब सब्र ना हो पाए, उसको आए अब तक रहम न करना,
हर खाब आखिर टुकड़े टुकड़े हो के चूर हो जाता है,
शायद यही है हमारा नसीबां, टूटना बिखरना, टूटना बिखरना!
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