एक छोटी सी बैठक है
बहुत बड़े और ऊंचे
कद वाले लोगों की,
जिनके उधार पे है ये
दुनिया चल रही,
जो अपने कंधों पे
बिठा के दुनियां
को ऊंचाई पे ले चले,
जिनका चाह के भी कभी
दिया जा सकता भत्ता नहीं,
जो दुनियां में हो के
सिर्फ दुनिया के लिए जिए,
मानता हूं जिनको मैं
संतो, महंतों, भिक्षुओं से ऊपर
जो छोड़ के निकलते है घर
सिर्फ अपनी मुक्ति के लिए,
जिन्होंने जिज्ञासा को
ही हर घड़ी परम माना,
जिन्होंने सत्य को खोजने
को ही अपना धर्म जाना,
और जो चलते रहे सब त्याग
अकेलेपन की अंधेर गलियों से
आने वाले युगों के सूरज के लिए,
वो पर्वत श्रृंखलाओं से,
आज भी हमारे बीच खड़े है,
और मुझ जैसे लोग
धूल के जैसे उनके पांव में पड़े हैं,
हाथ उठाए हुए,
झोली फैलाए हुए,
चांद तारों से ये गुजारिश करते हुए,
हमें भी कोई बल दो, बुद्धि दो,
मस्तिष्क में भुजाओं में
हमारे भी वो शक्ति भर दो,
ता के जिनके कुनबे के
हो गए हैं हम चलो
जन्म से ना सही करम से ही,
उन को और कुछ नहीं,
कर सकें हम फूल ही अर्पण दो।
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