दुनिया से क्यों
करना गिला, के वो
हमको ना जान पाए हैं,
सोचें तो हम ये
क्या अपनी क्षमताओं
को पहचान पाए हैं?
उसको यकीन था
अपने पे, उसने घर
छोड़ दांव लगाया,
फ़ाके झेले, तन्हाइयां
देखी, तल्ख़ियां सही,
नींद छोड़ी, दर्द सहा,
कई बार गिरा,
कितनी बार टूटा,
फिर भी उम्मीद न छोड़ी,
और फिर हम ही
गए थे, महफूज रहने के
लिए उसकी छत के नीचे,
जो जब चाहे छोड़ दें,
ना कोई पूछे, ना कोई
जबरन वापिस खींचे,
शायद हम ही नहीं
सोच रहें है, यहाँ
से अब आगे कहां
और कैसे जाना है,
उसके सिर दोष मढ़ना
शायद आलसमंदी
या बहाना है!
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