मैं तुम्हारी सूरत से वाक़िफ़ था,
क्योंकि उन पाबंदियों में
सिर्फ उतना ही मुमकिन था,
मैं तुम्हारी सीरत भी देख सकता था
उसका कुछ हिस्सा जग जाहिर था,
पर इतना कभी मुमकिन न हो सका
तुम्हारे ख्यालों, सपनों को देख सकूँ
तुम्हारे अंदर क्या चलता है उसको पढ़ सकूं,
ख्यालों की जिस रहगुज़र पे आकर
लोग मिल जाते हैं, जहाँ सूरत से ज्यादा
सीरत और ख्याल अहम हो जाते हैं,
शायद ये भी रस्ता होता है किसे का
बनने, किसे को अपना बनाने का,
काश! मुझे ये सब कुछ उस वक़्त पता होता,
नामुमकिन सोच के यूँ ही मायूस न होता!
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