हाल-ए-दिल था जो, कभी तुमको सुनाया ही नहीं

शायद मेरे ही मेरे थे तुम, हक़ मैंने जताया ही नहीं,

हाल-ए-दिल था जो, कभी तुमको सुनाया ही नहीं,


उठा के हाथ फ़रियाद तो करता, बन के नमाज़ी,

सजदे में लेकिन मैंने, सर अपना झुकाया ही नहीं,


ये अधूरा सा जो रह गया, अब और भी है सताता,

जो होता सो होता, कदम आगे क्यों बढ़ाया ही नहीं,


जो मिलते तो मेरी चाह हो जाती तुमको नुमाया,

ना जाने क्यों इस असबाब को आज़माया ही नहीं,


तुम्हारी ना से जान जाती, दुनिया से छूट जाते हम,

ग़मे-दिल का बोझ लेकिन, अब जाता उठाया नहीं!

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