यह जो लिखने सुनाने का पाल रखा है शोंक मैंने
यह जो लिखने सुनाने का पाल रखा है शोंक मैंने,
कभी कभी में इससे बुहत डरता हूँ !
रोटी कमाने का बुहत होता है जाया इससे वक़्त मेरा,
किसी दिन भूखे रह जाने से में डरता हूँ !
लिखने की खातिर कर दिया है मैंने उसे बदनाम कितना,
सामने न आ जाए वो कहीं कभी में डरता हूँ !
बख्शा न है मैंने लिखते हुए रब को भी कभी कभी,
जाने क्या क्या मुक़र्रर हो गयी होगी सजा में डरता हूँ !
सियासी लोगों ,मजहबों की भाखियाँ भी हैं मैंने उधेडी,
किसी साजिश का शिकार होने से में डरता हूँ !
इंसान की जो हविनायत को भी ब्यान किया है मैंने,
अब उसी हैव्नियात का पकवान होने से डरता हूँ !
लिखने की खातिर जो गम को भी लगाया है गले मैंने ,
कहीं बन ना जाए यह नासूर में डरता हूँ !
अकेले तनहा जो फिरता रहता हूँ इस शोंक की खातिर,
कहीं टूट न जाए सब से नाता में डरता हूँ !
यह जो इस शोंक के चक्कर में मैं भूल गया हूँ जिम्मेदारी,
मेरा शोंक किसी का शोक न बन जाए डरता हूँ !
यह जो आज कल हो गयी है सारी सारी रात लिखने की आदत,
कहीं ले ना ले यह जान मेरी मैं डरता हूँ !
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