ख़याल-ए-बातिल

कोई कोई दिन तो 

ऐसे निकल जाता है,

जैसे किताब में आ 

जाए कोई खाली पन्ना,


ना कोई तालुक,

ना कोई रिश्ता मुमकिन,

उसको एक बार

फिर से देखने की तमन्ना,


देर रात में जब सब लोग 

अपने घरों में सो जाते हैं, 

अपनी तालाश में 

सुनसान गलियों में निकलना,


मानते तक नहीं के 

कोई है दुनिया बनाने वाला,

चाहें उससे मिलके,

एक बार उसपे बिगड़ना! 

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