टक से चलता है छुरा,
सिलवटे पे एक खून की,
लकीर सी खिंच जाती है,
जैसे आ जाती है कागज़ पे
सियाही की एक लकीर,
झटके से पैन छिड़कने पे,
और मैं अब भी उस
गली से गुज़र नहीँ पाता हूँ,
चाहे अब उतना नहीं घबराता हूँ,
बुहत छोटा था तब मेरे
दिल में ये डर बैठ गया था,
उसकी लाल आँखे देख के,
के जिस दिन सारी मुर्गियाँ
खत्म हो जाएंगी इसकी,
उस दिन इसी छुरे से
ये मेरी भी गर्दन कलम कर देगा!
सिलवटे पे एक खून की,
लकीर सी खिंच जाती है,
जैसे आ जाती है कागज़ पे
सियाही की एक लकीर,
झटके से पैन छिड़कने पे,
और मैं अब भी उस
गली से गुज़र नहीँ पाता हूँ,
चाहे अब उतना नहीं घबराता हूँ,
बुहत छोटा था तब मेरे
दिल में ये डर बैठ गया था,
उसकी लाल आँखे देख के,
के जिस दिन सारी मुर्गियाँ
खत्म हो जाएंगी इसकी,
उस दिन इसी छुरे से
ये मेरी भी गर्दन कलम कर देगा!
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